देवी भागवत के मुताबिक श्री विंध्याचल शक्तिपीठ का 108 शक्तिपीठों और 12 महापीठों में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। यह एक जागृत सिद्ध शक्तिपीठ है। हर साल देश के कोने-कोने से दोनो नवरात्री में श्रद्धालु यहां आते है। सहस्त्रो साधक नौ दिनों तक यहां साधना करते है।
प्रत्येक मंगलवार और शनिवार को मंदिर में भक्तों की काफी भीड़ होती है। पुराणों में विंध्याचल जैसा तीर्थ अन्यत्र नहीं कहा गया है। पुण्यसरिता, पतितपावनी गंगा की कलकल निनाद करती तरंगे, एवं प्रकृतिक सुरह में सुषमा सी अलंकृत विराट विंध्य पर्वत माला के मध्य स्थित माता का ये धाम कई रहस्य समेटे हुआ है।
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विंध्य पर्वत पर विराजमान आदि शक्ति माता विंध्यवासिनी की महिमा अपरम्पार है। भक्तों के कल्याण के लिए सिद्धपीठ विंध्याचल में सशरीर निवास करने वाली माता विंध्यवासिनी का धाम मणिद्वीप के नाम से विख्यात है। देवीभागवत पर गौर करें तो जिस स्थान पर विंध्य पर्वत और गंगा का संगम होता है औऱ गंगा उनका पद पक्षारण करके पुन उत्तर वाहिनी होती है, तथा दक्षिण से आकर गंगा विंध्य पर्वत माला का स्पर्श कर पुन दक्षिण मुखी हो जाती है, वह स्थान मणिद्वीप कहलाता है। जगदंबा वहां सदैव ही वास करती है। माता के इस धाम में सत, रज, तम गुणों से युक्त महाकाली, महालक्ष्मी, और अष्टभुजा तीनों रूप में एक साथ विराजती हैं।
दरअसल माँ विन्ध्यासिनी त्रिकोण यन्त्र पर स्थित तीन रूपों को धारण करती हैं जो की महालक्ष्मी, महासरस्वती और महाकाली हैं। मान्यता अनुसार सृष्टि आरंभ होने से पूर्व और प्रलय के बाद भी इस क्षेत्र का अस्तित्व कभी समाप्त नहीं हो सकता। श्रीमद्भागवत पुराण की कथानुसार देवकी के आठवें गर्भ से जन्में श्री कृष्ण को वसुदेवजी ने कंस से बचाने के लिए रातोंरात यमुना नदी को पारकर गोकुल में नन्दजी के घर पहुंचा दिया था। वहां यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं आदि पराशक्ति योगमाया को चुपचाप मथुरा के जेल में ले आए थे।
जब कंस को देवकी की आठवीं संतान के जन्म का समाचार मिला तो वह कारागार में पहुंचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर पटककर जैसे ही मारना चाहा, वह कन्या अचानक कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुंच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित कर कंस के वध की भविष्यवाणी की और अंत में वह भगवती विन्ध्याचल वापस लौट गई।
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इतना ही नहीं श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध में कथा आती है कि सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी ने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपा को उत्पन्न किया तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुव मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई थी।
देवी की इस कथा से भी यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीषसे हुआ। शास्त्रों में मां विंध्यवासिनी के ऐतिहासिक महात्म्य का अलग-अलग वर्णन मिलता है। शिव पुराण में मां विंध्यवासिनी को सती माना गया है तो श्रीमद्भागवत में नंदजा देवी (नंद बाबा की पुत्री) कहा गया है। मां के अन्य नाम कृष्णानुजा, वनदुर्गा भी शास्त्रों में वर्णित हैं। इस महाशक्तिपीठ में वैदिक तथा वाम मार्ग विधि से पूजन होता है। शास्त्रों में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि आदिशक्ति देवी कहीं भी पूर्णरूप में विराजमान नहीं हैं। विंध्याचल ही ऐसा स्थान है जहां देवी के पूरे विग्रह के दर्शन होते हैं। जबकि शास्त्रों के अनुसार, अन्य शक्तिपीठों में देवी के अलग-अलग अंगों की प्रतीक रूप में पूजा होती है। माता का ये धाम पावन और तारनेवाला है यही वजह है कि भक्त मां का दर चूमने से पीछे नहीं रहते।
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